Friday, September 7, 2018

समलैंगिक संबंधों पर कोर्ट में क्या रहा मोदी सरकार का रुख़?

फ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का अमरीकी सेना की मदद करना हक्क़ानी का रास नहीं आया और उनके आपसी संबंधों में खटास आ गई. इसी दौरान हक्कानी नेटवर्क ने दक्षिण पूर्व अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें गहरी की और यहीं से अभियान चलाया.
अमरीका ने कई आत्मघाती हमलों और अपहरणों के लिए हक्कानी को ज़िम्मेदार बताया. जब अमरीका ने यहां ड्रोन और हवाई हमले किए तो तालिबान और हक्कानी लड़ाकों ने भागकर पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान में पनाह ली और यहां से गतिविधियां चलाईं.
पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार सबाहत ज़कारिया बताती हैं, "हक्कानी नेटवर्क का पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान इलाके में बेस था. वे अफ़ग़ानिस्तान में जाकर भी ऑपरेट करते रहे हैं. इसे सॉफ़्ट बॉर्डर कहा जा सकता है और यहां से इधर-उधर आ जाकर ऑपरेशन चलाना संभव है और उस समय ज़्यादा संभव था."
"हक्क़ानी पावर ब्रोकर थे, माफ़िया की तरह. अल क़ायदा और ओसामा के साथ उनके अलग रिश्ते थे और तालिबान के साथ अलग थे. पाकिस्तान और अफगानिस्तान में उनका काफी प्रभाव था."
हक्कानी नेटवर्क ने अपनी सुविधा के हिसाब से रिश्ते बनाए और तोड़े भी. तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ भी इसकी क़रीबी रही. अमरीका की कार्रवाई के बाद अफगानिस्तान से भागे लड़ाकों ने वज़ीरिस्तान की ओर आना शुरू किया. यहां उनका इतना प्रभाव हो गया कि उनके साथ संघर्ष में पाकिस्तान के 700 जवानों की मौत हो गई. इसके बाद हालात ऐसे हो गए 2006 तक पाकिस्तानी अधिकारी वज़ीरिस्तान में क़दम तक नहीं रख सकते थे. इससे हक्क़ानी और अन्य चरमपंथी समूहों को यहां पर और मज़बूत होने में मदद मिली.
मगर पाकिस्तान पर हक्कानी के खिलाफ़ नरम रवैया रखने के आरोप लगते रहे हैं, हालांकि पाकिस्तान इनसे इनकार करता है. 2011 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी पाकिस्तानी एजेंसियों के चरमपंथियों से रिश्ते होने की बात कही थी.
उन्होंने कहा था, "इसमें कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसियों के ऐसे लोगों से रिश्ते हैं जो हमारे लिए समस्या हैं. मैंने सार्वजनिक तौर पर भी यह कहा है और पाकिस्तानी अधिकारियों से भी. उन्हें लगता है कि स्वतंत्र अफगानिस्तान उनकी सुरक्षा के लिए खतरा होगा क्योंकि वह भारत के क़रीब आ सकता है जिसे वो अपना दुश्मन समझता है."
अमरीका ने साल 2012 में ही हक्कानी नेटवर्क को प्रतिबंधित कर दिया था मगर पाकिस्तान ने 2014 में पेशावर में स्कूल पर हुए चरमपंथी हमले के बाद 2015 में लाए गए नैशनल ऐक्शन प्लान के तहत इस पर बैन लगाया.
मगर हाल ही में फिर अमरीका ने यह कहते हुए पाकिस्तान को चरमपंथी समूहों के खिलाफ लड़ने के लिए दी जाने वाली मदद रोक दी कि वह इस दिशा में सही से काम नहीं कर रहा.
अफ़गानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू बताते हैं, "जो अमरीका कहता है वो सही है. पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क और तालिबान का इस्तेमाल करता रहा है. हक्कानी उसका इंस्ट्रूमेंट है. हक्कानी नेटवर्क ने भारत के दूतावास पर दो बार हमला किया था. यह कहना ग़लत है कि हक्कानी नेटवर्क और तालिबान पाकिस्तान के इशारों पर नहीं चलते हैं."
एक समय सोवियत संघ के आक्रमण के ख़िलाफ़ अफ़ग़ान संघर्ष के प्रतीक के तौर पर पहचाने जाने वाले जलालुद्दीन हक्कानी का अफ़ग़ानिस्तान में एक दशक के ख़ून ख़राबे को लेकर भी ज़िक्र होता है. मगर जानकार कहते हैं कि उनकी मौत का हक्कानी नेटवर्क पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि कई साल पहले ही वह अपने बेटे सिराजुद्दीन को जिम्मेदारी सौंप चुके थे.
आज सिराजुद्दीन अफ़गान तालिबान के शीर्ष नेताओं में से एक हैं और अफ़गान सरकार, अमरीका के सहयोगियों और भारत का मानना है कि वे अभी भी अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता के लिए ख़तरा बने हुए हैं.
देश की सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार को समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है. इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने इस मसले पर सुनवाई की.
धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी. 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फ़ैसला दिया है.
लेकिन इस बीच ये जानना दिलचस्प होगा कि इस मुद्दे पर अलग-अलग सरकारों का रुख़ क्या रहा है. सबसे पहले नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार की बात.
सरकार का रुख़ देखकर साफ़ पता चलता है कि इस मुद्दे का भार वो अपने कंधों पर न रखकर कोर्ट पर ही डालना चाहती थी. इसी साल जुलाई में केंद्र सरकार ने सेक्शन 377 का भविष्य तय करने का ज़िम्मा सुप्रीम कोर्ट पर ही डाला था.
और सर्वोच्च अदालत ने तभी मज़बूत संकेत दे दिए थे कि वो सेक्शन 377 के ख़िलाफ़ जाएगी जो समलैंगिकता को अपराध बताती है.
इससे पहले सरकार ने अदालत में दाख़िल हलफ़नामे में सेक्शन 377 पर फ़ैसले का ज़िक्र करते हुए 'अदालत के विवेक' की बात कही थी.
इसमें कहा गया था, ''अदालत को इस पर फ़ैसला लेना चाहिए, इसका निर्णय अदालत को करने दीजिए.''
तभी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उसकी मंशा ये फ़ैसला सुनाने की है कि अगर दो बालिग लोग अपनी सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाना चाहते हैं तो उन्हें इसकी इजाज़त होनी चाहिए. हालांकि, ये जिरह पर निर्भर करेगा.
इससे पहले समलैंगिकता को लेकर भाजपा कुछ भी खुले तौर पर कहने या अपनी राय ज़ाहिर करने को लेकर बचती रही. हालांकि, भाजपा के मातृ संगठन माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने साल 2016 में अपना रुख़ साफ़ कर सभी को चौंका दिया था.
मार्च 2016 में आरएसएस के संयुक्त महासचिव दतात्रेय होसाबले ने ट्वीट किया था, ''समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है, लेकिन हमारे समाज में ये सामाजिक रूप से अनैतिक काम है. ऐसे लोगों को सज़ा देने की ज़रूरत नहीं है बल्कि इसे मनोवैज्ञानिक मामला मानिए.''
हालांकि, समलैंगिकों की शादी पर संघ ने दो टूक कहा था. उन्होंने लिखा था, ''गे मैरिज असल में समलैंगिकता को संस्थानीकरण देने जैसा है इसलिए इस पर पाबंदी रहनी चाहिए.''
किसी भी क़ानून के प्रावधान का बचाव करने की तैयारी में रहने वाली सरकार ने इस मुद्दे पर कई बार अलटी-पलटी मारी.
दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान जब सेक्शन 377 की वैधता पर सवाल उठाया गया था तब यूपीए सरकार ने इस प्रावधान का काफ़ी बचाव किया था, लेकिन हाई कोर्ट ने इसे ख़ारिज कर दिया.

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